जमीयते-उलेमा-ए-हिद ने फिजूल ही बर्रे के छत्ते में हाथ डाल दिया। देवबंद का जो दारूल-उलूम योग के पक्ष में और आतंकवाद के विरुद्ध फतवा जारी करता है, यह समझ में नहीं आता। गृहमंत्री चिदंबरम और स्वामी रामदेव का सम्मान करने वाला देवबंद वंदे मातरम् को रद्द करे, इससे बढ़कर विचित्र बात क्या हो सकती है? इसी तरह यह बात भी समझ में नहीं आती कि देवबंदियों को देशद्रोही कहा जा रहा है। जो वंदे मातरम् न गाए, वह देशद्रोही कैसे हो गया? वंदे मातरम् तो अभी डेढ सौ साल पहले पैदा हुआ है। क्या उसके पहले यह देश नहीं था? उस समय लोग क्या गाते थे? क्या वे देशद्रोही थे? जो वंदे मातरम् गाने को देशभक्ति का प्रमाण पत्र बना लिया है, उनमें से ज्यादातर लोगों को तो वह पूरा लंबा गीत याद भी नहीं होता और याद भी है तो उसका अर्थ नहीं जानते। उन्हें न बंगला आती है न संस्कृत। जब वंदे मातरम् गाया जाता है तो कितने ही लोग चुप रहते है। क्या वे देशभक्त नहीं है? जो न गाना चाहे, क्या उसके गले में उंगली डालकर राष्ट्रगीत गवाया जाएगा? डंडे मार-मारकर लोगों को राष्ट्रभक्त कैसे बनाया जाएगा? जैसे गुलाब में खुशबू नहीं होगी, उसे कौन सूंघेगा? जो अपने राष्ट्रगीत, राष्ट्रध्वज और संविधान का सम्मान नहीं करता, उसका सम्मान कौन करेगा? राष्ट्रगीत के खिलाफ जो फतवे जारी कर रहे है, वे देशद्रोही नहीं, बुद्धिद्रोही है।
वंदे मातरम् में ऐसा क्या है कि मुसलमान उसे न गाएं? बंकिमचंद्र ने जो वंदेमातरम् १८७५ में लिखा था, उसके सिर्फ पहले दो पद हमारे राष्ट्रगीत के रुप में गाए जाते है। इन पदों में एक शब्द भी ऐसा नहीं है, जो इस्लाम के विरुद्ध हो। फतवा जारी करने वाले लोगों को पता नहीं कि 'वंदे' शब्द का सही अर्थ क्या है। संस्कृत का 'वंदे' शब्द वंद धातु से बना है, जिसका मूल अर्थ है, प्रणाम, नमस्कार, सम्मान, प्रशंसा! कुछ शब्द-कोशों में पूजा-अर्चना भी लिखा हुआ है, लेकिन मातृभूमि की पूजा कैसे होगी? लाखों वर्गमील में फैली भारत-भूमि की कोई पूजा कैसे कर सकता है? वह कोई व्यक्ति नहीं, वह कोई मूर्ति नहीं, वह कोई पेड़-पौधा नहीं, वह कोई चित्र या प्रतिमा नहीं। उसे किसी मंदिर या देवालय में कैद नहीं किया जा सकता। कोई उसकी आरती कैसे उतारेगा, उसकी परिक्रमा कैसे लगाएगा, उसका अभिषेक कैसे करेगा? यहां मातृभूमि की वंदना का सीधा-साधा अर्थ है, अपने देश में प्रति श्रद्धा और सम्मान! कौन सा ऐसा इस्लामी देश है, जो अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा रखने का विरोध करता है। हम यह न भूलें कि हजरत मुहम्मद ने तो यहां तक कहा है कि माता के पैरों के तले स्वर्ग होता है।
मॉ का मुकाम इतना उंचा है कि हमारे राष्ट्रगीत में राष्ट्रभूमि को मातृभूमि कहा गया है। अफगान लोगों से ही हमने 'मादरे-वतन' शब्द सीखा है। क्या वे लोग मुसलमान नहीं है? बांग्लादेश के राष्ट्रगान में मातृभूमि का उल्लेख चार बार आया है। क्या सारे बांग्लादेशी काफिर है? इंडोनेशिया, तुर्की और सउदी अरब के राष्ट्रगीतों में भी मातृभूमि के सौंदर्य पर जान लुटाई गई है। क्या वे राष्ट्र इस्लाम का उल्लंघन कर रहे है? मातृभूमि की वंदना पर हिंदुओं का एकाधिकार नहीं है। यह धारणा संपूर्ण एशिया में फैली हुई है। इसे हिंदु, मुसलमान, बौद्ध सभी मानते है। मातृभूमि को मूर्तिपूजा-जैसा पूजा तो बिलकुल असंभव है लेकिन दिमागी तौर पर अगर यह मान लिया जाए कि मातृभूमि पूज्य है तो तोहीद (एकेशवरबाद) का विरोध कैसे हो सकता है? क्या मातृभूमि अल्लाह की रकीब (प्रतिद्वंदी) बन सकती है? मातृभूमि की जो पूजा करेगा, क्या वह यह मानेगा कि उसके दो अल्लाह है, दो ईशवर है, दो अहुरमजद है? बिल्कुल नहीं। दो ईशवर तो हो ही नहीं सकते। यदि मातृभूमि पूज्य है तो अल्लाह तो परमपूज्य है। दोनों में न तो कोई तुलना है न बराबरी है।
इसीलिए वंदे मातरम् को तौहीद के विरुद्ध खड़ा करना और उसे इस्लाम-विरोधी बताना बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं लगता। जहां तक वंदेमातरम् के उर्दू तर्जूमे का सवाल है उसे 'वंदे' का मतलब है, सलाम या तस्लोमात ! कहीं भी 'वंदे' को इबादत या पूजा नहीं कहा गया है। इसी तरह वंदे मातरम् के अंग्रेजी अनुवाद में 'वंदे' को 'सेल्यूट' कहा जाता है। इसे कहीं भी पूजा (वरशिप) नहीं कहा गया है। इसीलिए वंदे मातरम् को बुतपरस्तों में जोड ने में कोई तुक दिखाई नहीं पडती।
तो फिर कुछ मुस्लिम नेता 'वंदे मातरम्' का विरोध क्यों करते है। सच्चाई तो यह है कि वंदे मातरम् का विरोध मुसलमानों ने नहीं 'मुस्लिम लीग' ने किया था। बंगाल के ंिहंदुओं और मुसलमानों ने यही गीत एक साथ गाकर बंग-भंग का विरोध किया था, कांग्रेस के अधिवेशनों में मुसलमानों अध्यक्षों की सदारत में यह गीत हमेशा लाखों हिंदु और मुसलमानों ने साथ-साथ गाया है, गांधी के हिंदु और मुसलमानों सत्याग्रहियों ने चाहे वे बंगाली हो या पठान, वंदे मातरम् गाते-गाते अपने सीने पर अंग्रेज की गोलियां झेली है। मुस्लिम लीग में शामिल होने के पहले तक स्वयं मुहम्मद अली जिन्ना वंदे मातरम् गाया करते थे।
मौलाना आजाद से बढ कर इस्लाम को कौन मुसलमान जानता था? उन्होनें स्वयं इस गीत को गाने की सिफारिश की थी। मुस्लिम लीग को सिर्फ वंदे मातरम् से एतराज नहीं था, हर उस चीज से नफरत थी जो हिंदु और मुसलमान को जोडे रखती थी। मुस्लिम लीग ने वंदे मातरम् को बंकिम के उपन्यास 'आनंदमठ' और उन सन्यासियों से जोड दिया, जिन्होनें इस उपन्यास के खलनायकों के विरुद्ध गाया था। वे खलनायक संयोगवश मुस्लिम जागीरदार थे। मुस्लिम लोग यह भूल गए कि 'आनंदमठ' छपा १८८२ में और यह गीत लिखा गया था १८२५ में। इसके अलावा 'आनंदमठ' के पहले संस्करण में मूल खलनायक ब्रिटिश थे, मुस्लिम जागीरदार नहीं। मुस्लिम लीग ने अंत तक अपना दुराग्र्रह नहीं छोड ा लेकिन अपनी दुबुद्धि वह यहीं छोड गई।
इस दुबुद्धि को हमारी स्वतंत्र भारत की जमीयत अपनी छाती से क्यों लगाए हुए है? यह जमीयत इस्लाम के पंडितों, विद्वानों, आजिमों की संस्था है। वह मुस्लिम नीतियों की तरह कुर्सी प्रेमियों का संगठन नहीं है। उससे उम्मीद की जाती है कि वह सारे मसले पर दुबारा खुलकर सोचे और अपने मुसलमान भाइयों को सही संदेश दे। वह मुस्लिम लीग के टोटकों लाशों क्यो ढोए? उसका मकसद इस्लाम की खिदमत है न कि मुस्लिम लीग का वारिस बनना। 'वंदे मातरम' जैसे नकली मुद्दे कभी के मुस्लिम लीग की कब्र में सो गए है। अब उन्हें फिर जगाने से क्या फायदा?
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