Wednesday, September 3, 2008

गणपति बप्पा मोरया.....

विसर्जन.....

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एक दिन बाद.....

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क्या आप चाहेगे, कि हमारे भगवान कचरे की तरह उठाये जाये.....

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और उनका हश्र ऐसा हो ?

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और ऐसा..... ?

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.......?

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असहाय ईश्वर.....

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क्या एक प्रतिमा ही भगवान है या भगवान केवल एक बुत है.....?

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सोचो............ जागो...........

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Wednesday, August 27, 2008

चंबल नगरी भिंड में चमत्कारी जैन प्रतिमा

हिन्दुस्तान के दिल मध्यप्रदेश के उत्तरी हिस्से में स्थित चंबल की घाटियाँ, जो कभी डाकुओ की शरणस्थली के रूप में प्रसीध थी. उन्हीं चंबल की घाटिओं में स्थित भिंड नगर में आज एक चमत्कार देखने को मिला जब शहर के मध्य स्थित किला रोड आदीनाथ जैन मंदिर में ६०० वर्ष पुरानी भगवान नेमिनत की प्रतिमा पर स्वामेव ही अभिषेक होने लगा, जो अभी तक निरंतर जारी है.

Friday, August 8, 2008

भगवान भी हँसते है......

जी हाँ, भगवान भी हँसते है.

यकीन नही होता...........

तो नीचे इस चित्र को देखिये........

smile

Monday, July 28, 2008

जैन धर्म में ’ॐ’

अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो।
पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी।

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जैनागम में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी मुनि रूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गए हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम्’/‘ओं’ बन जाता है। यथा, इनमें से प्रथम परमेष्ठी ‘अरिहन्त’ या ‘अर्हन्त’ का प्रथम अक्षर ‘अ’ को लिया जाता है। द्वितीय परमेष्ठी ‘सिद्ध’ है, जो शरीर रहित होने से ‘अशरीरी’ कहलाते हैं। अत: ‘अशरीरी’ के प्रथम अक्षर ‘अ’ को अरिहन्त’ के ‘अ’ से मिलाने पर अ+अ=‘आ’ बन जाता है।
उसमें तृतीय परमेष्ठी ‘आचार्य’ का प्रथम अक्षर ‘आ’ मिलाने पर आ+आ मिलकर ‘आ’ ही शेष रहता है। उसमें चतुर्थ परमेष्ठी ‘उपाध्याय’ का पहला अक्षर ‘उ’ को मिलाने पर आ+उ मिलकर ‘ओ’ हो जाता है। अंतिम पाँचवें परमेष्ठी ‘साधु’ को जैनागम में मुनि भी कहा जाता है। अत: मुनि के प्रारंभिक अक्षर ‘म्’ को ‘ओ’ से मिलाने पर ओ+म् = ‘ओम्’ या ‘ओं’ बन जाता है।
इसे ही प्राचीन लिपि में

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के रूप में बनाया जाता रहा है।
‘जैन’ शब्द में ‘ज’, ‘न’ तथा ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ संबंधी दो मात्राएँ बनी होती हैं। इनके माध्यम से ही जैन परम्परागत ‘ओं’ का चिह्न बनाया जा सकता है। इस ‘ओम्’ के प्रतीक चिह्न को बनाने की सरल विधि चार चरणों में निम्न प्रकार हो सकती है-
1. ‘जैन’ शब्द के प्रथम अक्षर ‘ज’ को अँग्रेजी में ‘जे’- J लिखा जाता है। अत: सबसे पहले ‘जे’- J को बनाएँ-
2. तदुपरान्त ‘जैन’ शब्द में द्वितीय अक्षर ‘न’ है। अत: उस ‘जे’- J के भीतर/ साथ में हिन्दी का ‘न’ बनाएँ-

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3. चूँकि ‘जैन’ शब्द में ‘ज’ के ऊपर ‘ऐ’ संबंधी दो मात्राएँ होती हैं। अत: उसके ऊपर प्रथम मात्रा के प्रतीक स्वरूप पहले चन्द्रबिन्दु बनाएँ-
4. तदुपरान्त द्वितीय मात्रा के प्रतीक स्वरूप उसके ऊपर चन्द्रबिन्दु के दाएँ बाजू में ‘रेफ’ जैसी आकृति बनाएँ-
इस प्रकार जैन परम्परा सम्मत

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यानी ‘ओम्’/ ‘ओं’ की आकृति निर्मित हो जाती है।
जैन परम्परा की अनेक मूर्तियों की प्रशस्तियों, यंत्रों, हस्तलिखित ग्रंथों, प्राचीन शिलालेखों एवं प्राचीन लिपि में इसी प्रकार से

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-‘ओम्’/‘ओं’ का चिह्न बना हुआ पाया जाता है। वस्तुत: प्राचीन लिपि में ‘उ’ के ऊपर ‘रेफ’ के समान आकृति बनाने से वह ‘ओ’ हो जाता था। और उसके साथ चन्द्रबिन्दु प्रयुक्त होने से वह -‘ओम्’/‘ओं’

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बन जाता था। किन्तु वर्तमान में हस्तलिखित ग्रंथ पढ़ने अथवा उनके लिखने की परम्परा का अभाव हो जाने के कारण अब प्रिंटिंग प्रेस में छपाई का कार्य होने लगा है। हम लोगों की असावधानी अथवा अज्ञानता के कारण प्रिटिंग प्रेस में यह परिवर्तित होकर अन्य परम्परा मान्य बनाया जाने लगा। इसके दुष्परिणाम स्वरूप हम लोग जैन परम्परा द्वारा मान्य

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चिह्न को प्राय: भूल गए हैं और ॐ को ही भ्रमवश जैन परम्परा सम्मत मान बैठे हैं।
जैन परम्परा सम्मत इस

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का shree लिपि के Symbol Font Samples के अंतर्गत नं. 223 में N तथा नं. 231 में j को Key Strock करके प्राप्त किया या बनाया जा सकता है एवं ‘पूजा’ फॉन्ट में Alt+0250 से भी

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प्राप्त किया जा सकता है। संभव है कि इसके अतिरिक्त ‘क्लिप आर्ट’ में अन्यत्र भी यह चिह्न उपलब्ध हो सकता है।
इस प्रकार जैन परम्परा को सुरक्षित रखने हेतु सभी मांगलिक शुभ अनुष्ठानों, पत्रिकाओं, विज्ञापनों, इंटरनेट, ग्रीटिंग्स, ‍होर्डिंग्स, बैनर, एस.एम.एस., नूतन प्रकाशित होने वाले साहित्य, स्टीकर्स, बहीखाता, पुस्तक, कॉपी, दीवार आदि पर जैन परम्परा द्वारा मान्य

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का प्रतीक चिह्न बनाकर इसका अधिकाधिक प्रचार-प्रसार किया/कराया जा सकता है।
इस संबंध में जैन धर्म के प्रभावनारत पूज्य आचार्यदेव, साधुगण, साध्वियाँ, विद्वत्मनीषी, प्रवचनकार भी अपने धर्मोपदेश के समय जैन परम्परागत इस

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‘ओम्’ की जानकारी तथा इसे बनाने की प्रायोगिक विधि भी जनसामान्य को बतलाकर अर्हन्त भगवान् के जिन-शासन के वास्तविक स्वरूप को प्रकट कर/करा सकते हैं। इसे बनाने की विधि सुन-समझकर धार्मिक पाठशालाओं में अध्ययनरत बालक-बालिकाओं को इसकी प्रायोगिक विधि से अभ्यास कराए जाने पर भविष्य में उनके द्वारा इसे ही बनाना प्रारंभ किया जा सकेगा।

Monday, March 24, 2008

स्पर्श...

वो उष्मा थी या ऊर्जा नहीं जानता बस एक स्पर्श से मैंने ख़्वाहिशों को जलते देखा है एक आग जो राख नहीं करती मैंने दिल के पत्थर को कुंदन में बदलते देखा हैवो हँसती है तो सूखी नदी भी उन्मादित होकर बह उठती हैवो उदास थी........ मैंने समन्दर को सिकुड़ते देखा हैवो छू ले तो पत्थर भी जी उठे उसकी नजदीकी को मदहोशऔर दूरी को तड़पते हुए देखा हैमैं उसे देखूँ या हवाओं को मैंने साँसों को रुकते और तूफानों को पलटते हुए देखा हैउस एक स्पर्श में न जाने क्या जादू थामैंने रात भर खुद को छूकर देखा है.............

बहुत खोया हैं मैने, जिन्दगी को.....

बहुत खोया हैं मैने, जिन्दगी को जिन्दगी के वास्तेमगर पायी नहीं कोई खुशी इस जिन्दगी के वास्तेभटकता फिर रहा हूँ मैं, यहाँ रिश्तो के जंगल मेंन इसको पा सका अब तक,इस दुनिया के समुन्दर मेंमेरे हालत पहले से भी बदतर हों गये याराबहुत अरसा लगेगा रात से अब सहर होने मेंबहुत रोया यहाँ मैं ,आदमी बन आदमी के वास्ते मगर पाया नहीं ..........................................हैं काफी वक्त खोया बुत यहाँ अपना बनाने में नजर में भा सका न ये किसी के इस जमाने में किया जज्बात के बाजार में सौदा बहुत यारा कहीं पे रहा गयी कोई कमी इसको सजाने मेंबहुत तडफा यहाँ इन्सान बन इंसानियत के वास्तेमगर पाया नहीं

Saturday, March 15, 2008

माँ.......


मैं कभी बतलाता नहीं

पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ

यूँ तो मैं,दिखलाता नहीं

तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ

तुझे सब है पता,है ना माँ

तुझे सब है पता,मेरी माँ

भीड़ में यूँ ना छोडो मुझे

घर लौट के भी आ ना पाऊँ माँ

भेज ना इतना दूर मुझको तू

याद भी तुझको आ ना पाऊँ माँ

क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ

क्या इतना बुरा मेरी माँ

जब भी कभी पापा मुझे

जो जोर से झूला झुलाते हैं

माँ मेरी नज़र ढूंढे तुझे

सोचू यही तू आ के थामेगी माँ

उनसे मैं ये कहता नहीं पर

मैं सहम जाता हूँ माँ

चेहरे पे आने देता नहीं

दिल ही दिल में घबराता हूँ माँ

तुझे सब है पता है ना माँ

तुझे सब है पता मेरी माँ

मैं कभी बतलाता नहीं

पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ

यूँ तो मैं,दिखलाता नहीं

तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ

तुझे सब है पता,है ना माँ

तुझे सब है पता,मेरी माँ

भाषा

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषा को मूल । बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटै न हिय को शूल ॥ — भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
जो एक विदेशी भाषा नहीं जानता , वह अपनी भाषा की बारे में कुछ नही जानता । — गोथे
भाषा हमारे सोचने के तरीके को स्वरूप प्रदान करती है और निर्धारित करती है कि हम क्या-क्या सोच सकते हैं । — बेन्जामिन होर्फ
शब्द विचारों के वाहक हैं ।
शब्द पाकर दिमाग उडने लगता है ।
मेरी भाषा की सीमा , मेरी अपनी दुनिया की सीमा भी है। - लुडविग विटगेंस्टाइन
आर्थिक युद्ध का एक सूत्र है कि किसी राष्ट्र को नष्ट करने के का सुनिश्चित तरीका है , उसकी मुद्रा को खोटा कर देना । (और) यह भी उतना ही सत्य है कि किसी राष्ट्र की संस्कृति और पहचान को नष्ट करने का सुनिश्चित तरीका है, उसकी भाषा को हीन बना देना ।
..(लेकिन) यदि विचार भाषा को भ्रष्ट करते है तो भाषा भी विचारों को भ्रष्ट कर सकती है । — जार्ज ओर्वेल
शिकायत करने की अपनी गहरी आवश्यकता को संतुष्ट करने के लिए ही मनुष्य ने भाषा ईजाद की है. -– लिली टॉमलिन
श्रीकृष्ण ऐसी बात बोले जिसके शब्द और अर्थ परस्पर नपे-तुले रहे और इसके बाद चुप हो गए। वस्तुतः बड़े लोगों का यह स्वभाव ही है कि वे मितभाषी हुआ करते हैं। - शिशुपाल वध